Saturday, May 30, 2015

हृद-मानस के गर्त से - NCST की यादें

यादें अक्सर अकेले होने पर नहीं बनती । उनकी रचना तो हमेशा साथियों के साथ बिताये पलो से होती हैं। अक्सर एकांत उसे दुहरा देता हैं । आज वैसे ही एक याद आ गयी - NCST की  । देवाशीष, पराग, अमर, सुमित, प्रवीण, सलिल, मंगेश, जीतेन्द्र, ओमकार, महेश्वरी, वैभवी, मनीषा और कितने चेहरे और उनके साथ बिताये वो पल ।अपनी अपनी बातें, हुड़दंग और शरारते।  कुछ अलग उद्देश से वहा गया था और कितना कुछ बुनकर बैठ गया । सोहार्द्य और जीवन का अभिन्य छन । स्कूल और इंजीनियरिंग के दिनों के बाद कुछ सुनहरा पल रहा तो वो हैं NCST में बिताये वो कुछ महीने।

शुरुवात ही कुछ ऐसी थी की लगा बस पढ़ कर निकल जाये, अच्छा नॉलेज हो जाये और अच्छी सी नौकरी । बस यही मक़सद था वहा जाने का । शायद बाकियों का कुछ अलग रहा हो, पर २-३ मॉडुल के बाद नौकरी मिलते हैं एक एक कर सभी का NCST छोड़ जाना मेरी ये सोंच को मजबूत कर देता हैं। मेरा मक़सद कुछ अलग भी था - जिद। पिछले साल एंट्रेंस में फेल होने (जोश में आकर ना आने वाले प्रश्नो को भी लिख दिया और नेगेटिव मार्किंग का शिकार हो गया ) और पैसे ना होने की वजह से मॉडुल ना कर पाने की वजह से इस साल करना हैं ये जिद थी । मेरे इंजीनियरिंग के दोस्त पिछले साल ये कर चुके थे और मुझे इस साल ये करना था जिसकी तैयारी मैंने पिछले ६ महीनो से कर रखी थी । वेंकट सर से जावा तक की क्लास कर रखी थी और अपने पहले जॉब को अचानक में छोड़ दिया । मुझे वहा से नौकरी की ख्वाहिश नहीं थी ख़्वाहिश थी तो बस MGPT क्लियर कर उसका सर्टिफिकेट पाने की क्यूंकि वहा सिर्फ १-२ % ही लोग पास होते थे । शायद किसी को दिखाना रहा हो पर मेरे दिल और दिम्माग के लिए जरुरी था क्यूंकि इंजीनियरिंग के आखरी साल के नाकामी की यही भरपाई करने का आखरी मौका था । खैर ये मेरी NCST आने की प्रस्तावना थी । सो मैंने इसबार कोई गलती नहीं की एंट्रेंस संभल कर दिया और पास हो गया ।


उस समय NCST मुंबई की २ शाखाये थी एक जुहू और दूसरी खारघर में। हमारे उस बैच में लगभग १३६ लोग थे। शायद उसी वर्ष से NCST का नाम CDAC हो गया था पर हमने कभी उसे स्वीकार नहीं किया । सुना था प्रमोद महाजन का NCST के डायरेक्टर से मतभेद होने की वजह से प्रमोद महाजन ने NCST - DCAC को एक कर दिया और NCST के डायरेक्टर ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया । शायद ये सच न रहा हो पर मिलन के बाद कई अच्छे साइंटिस्ट-प्रोफेसर  NCST छोड़ कर चले गए, ये सब थोड़ा मेरे तर्क को मजबूत कर देते हैं । चलो ये बातें अपने किस काम की , सब मैनेजमेंट की हैं । हा पर इस मिलन ने NCST के प्रभाव को नुक्सान जरूर किया था । नहीं तो एंट्रेंस के बगैर लोगो का एडमिशन होना, अंतिम २ मॉडुल तक लोगो का ना बचना, यहाँ तक कई तो जॉब इंटरव्यू में भी मुश्किल से पार लगते थे (में भी था उनमे ) और सबसे बड़ा धक्का तब लगा जब एडमिशन कम होने के कारण जुहू की शाखा को बंद कर दिया गया ।


मेरे लिए NCST शुरू होना एक उत्सव जैसा था । शायद हमारी बैच जुलाई २००५ में शुरू होनी थी  पर २६ जुलाई की बारिश ने पुरे लैब के कंप्यूटर को पानी में डूबो दिया था और पूरा NCST पानी से डूबा हुआ था । अतः क्लास अगस्त तक स्थगित कर दी गयी। उसी समय अम्मा की बीमारी ने और उनके जिद ने मुझे शादी करने पे मजबूर कर दिया । उस समय नौकरी और शादी की जगह दिम्माग में सिर्फ NCST था पर हार कर मैंने हामी भर दी। सारा पांसा, समीकरण के हिसाब से बिछा रखा था पर इस बारिश ने सब पानी पानी कर दिया । और क्या ? NCST की पहली क्लास उसी दिन हुई जिस दिन मेरी सगाई थी - १४ अगस्त २००५ । सगाई पहले से तय थी और क्लास मैं छोड़ नहीं सकता था । सो दोनों जगह जाने का फैसला किया । पहले क्लास फिर सगाई । क्या समय था आज भी याद आये तो हँसी छूट जाती हैं ।


उस  दिन अजीब सा मंजर था । NCST का हाल पूरा खचा खच भरा हुआ था। गेट के पास सबकी लिस्ट लगी थी । बार बार सब देखे जा रहे थे । बगल के एक सोफे पे में चुप चाप बैठे तमाशा देखे जा रहा था । अक्सर अनजान लोगो से बात चित शुरू न कर पाने की आदत ने अकेले बैठा रखा था । बाकी सब एक दूसरे से पहचान बना रहे थे । हम तो बस सबको ताके जा रहे थे । दुसरो की अफरा तफरी और हुल्लड़ो में मजे लिए जा रहे थे । कुछ बड़े उम्र के लोग भी थे, एकाध स्टूडेंट थे तो एकाध अपने पत्नी के साथ आये थे। कुछ दूर से भी आये थे जिनमे पराग नागपुर से था । और वही दूसरी छोर पर एक अजब सा नजारा था । एक माता पिता अपनी बेटी को बार बार गले लगा रहे थे । मुझे अजीब सा लगा, ऐसे कोर्स के लिए और वो भी जिसकी क्लास सिर्फ शानिवार और रविवार को हैं उसके लिए माता पिता परेशान हैं । बाद मे पता चला वो महेश्वरी थी और वो पुणे से यहाँ सिर्फ ये कोर्स करने आई थी । अमूनन पुणे के स्टूडेंट्स पुणे के NCST को ही चुनते हैं पर वो अपवाद थी । सो वो उस दिन उसे छोड़ने भी आये थे और इसी लिए बार बार बेटी को गले लगा रहे थे। मैं उस भीड़ भाड़ वाले दिन को जल्दी से छोड़ आया। शायद उस दिन लेक्चर नहीं था और अगला लेक्चर भारी बारिश की वजह से नहीं हुआ ।

घर पर सब सगाई की तैयारी कर रहे थे और में अपनी पहली क्लास की तैयारी में लगा था । अम्मा ने सचेत दिया था की समय पे आना हैं । मैं अपने क्लास के लिए निकल पड़ा । पहली बार जब क्लास में गया तो देखा पूरी क्लास  खचा खच भरी हुई थी। मैं भी एक छोर पर बैठ गया । पहला दिन था और पहला इंट्रोडक्शन - एक इंट्रोडक्टरी लेक्चर, जो हमारे डायरेक्टर शशी सर ने दिया । उस लेक्चर का कोई ध्यान नहीं क्यूंकि में पहले ही दिन देर से था । उसके बाद पहले मॉडुल OOPJ का लेक्चर शुरू हुआ जिसे JAVA में करना था। NCST में पहला अनुभव था की लेक्चर स्लाइड्स पे चल रहे थे । कुछ चीजे बताई जाती और आपको लैब के हवाले कर दिया जाता । वैसे ही जैसे एक सैनिक को बंदूक थमा, गोली कैसे चलाना बता जंग में छोड़ दिया जाता।  जाओ जाके लड़ो। पहले दिन कुछ समझा नहीं। ध्यान भी कहा था । बड़े भाई का फ़ोन बराबर आ रहा था सो जैसे ही लेक्चर खत्म हुआ मैं भाग निकला वर्ना अम्मा का वज्र रूप देखना पड़ता । सगाई भी गजब के गुजरी थी। वो भी अविश्मरणीय हैं । 


खैर बात NCST की हैं तो वही बात करेंगे ।
उसी लेक्चर या अगले लेक्चर मैं एक नया माहौल बना। कुछ ट्रांसपैरंसी और स्टूडेंट सिंक्रोनाइजेशन की बात निकली की सभी स्टूडेंट्स को अपडेटेड रखने के लिए एक ग्रुप बनाया जाय । उस समय Yahoo के दिन थे सो Yahoo Group बनाया गया (इसके आलावा भी हमने कई ग्रुप 'खुले' जैसे बनाये)। ये प्रश्ताव एक बन्दे ने खड़े होकर रखा था सो उसी को सभी ने सहमति देकर पूरा करने को कह दिया । ऐसे नए और अलग ideas रखने वाले थे - नविन धानुका। गजब का बंदा था। शुरू के दिनों में कुछ खास बातें नहीं हुई, थोड़ा अति गर्व शील लगा पर कोर्स के मध्य तक अच्छी दोस्ती हो गयी थी।

NCST के शुरू के २ मॉडुल OOPJ - DSAL के MGPT होती थी । जिसको पास करना एक जंग जितने के बराबर था । किसी स्टूडेंट के नॉलेज को इसके पास होने पर नापा जाता था । यहाँ आपको एक प्रोग्रामिंग प्रॉब्लम दिया जाता और आपको पहले ३० मिनट्स में पन्नो पर लॉजिक लिखना होता था और अंत के ९० मिनटों में कंप्यूटर पर सबमिट करना होता था । फिर 'परीक्षक' कंप्यूटर प्रोग्राम आपके सबमिट किये प्रोग्राम को अपने टेस्ट केसेस से सत्यापित करता । कुछ ७ टेस्ट केसेस होते और एक भी फ़ैल तो आप फेल । लोगो ने शुरू से ही जोर शोर से मेहनत शुरू कर दी थी । हाल ये होता की लैब के कंप्यूटर फ्री नहीं मिलते और आपको वेटिंग लिस्ट में अपना नाम लिखवाना पड़ता । पर क्या पता था की जैसे - 'गिरते हैं सह सवार ही, मैदाने जंग में' वैसे ही जो लैब मैं पसीना बहा रहे थे उनमे से कोई भी पास नहीं होने वाला था। पास तो अपरिचित से चेहरे हो गए। शायद १३६ में से २-३ लोग। २ पता थे बाकी को नहीं जानता । पहले लेक्चर के बाद में कुछ बीमार सा पड़ गया लगभग १५ दिनों के बाद आया था । अचानक पहली बार लैब में घुसा। बाहर के लैब में, सिर्फ एक साहब कोने में coding किये जा रहे थे - वो थे हमारे अमर सर। अमर त्रिपाठी मेरे आनेवाले समय में अति घनिष्ट मित्र । खैर उनको अनजान कर जैसे ही में अंदर के लैब में घुसा तो वहा का नजारा देख कर दंग रह गया । थोड़ा डर भी गया था । सब कंप्यूटर भरे हुए। कोई किसी से बात नहीं कर रहा था । अपने अपने आँखों को मॉनिटर पे गड़ाए पता नहीं क्या इन्वेंशन हो रहा था । अजीब सा सन्नाटा था । मेरे अनुकूल नहीं था । में हमेशा मस्त रहने वाला और जब तक कोई अति दक्ष समस्या ना हो तब तक इतना सीरियस तो नहीं होता था । सो में वापस बाहर बैठे अमर के साथ बगल में बैठ गया । अमर काफी मिलन सार थे सो तुरंत उनसे परिचय हो गया । ज्यादा बाते नहीं हो सकी शायद वो भी उस माहोल के शिकार थे और बुकलेट के प्रॉब्लम सोल्व करने में लगे हुए थे । मेरी लय नहीं बनी थी सो मैंने थोड़ा समय बिताया और चले गया।


अगला लेक्चर रविवार को हुआ। उस समय दो लेक्चर के बीच में टी ब्रेक होता था । हम सब लाइन में खड़े हो कर टी और बिस्कुट लेते । अमर की कई लोगो से पहचान हो गयी थी - उनका स्वाभाव भी वैसा था, एक दम मृदुल । वो समझाते भी बहुत अच्छे से थे इसी लिए हम सब उन्हें 'सर' कहते थे । सो अमर के कारण बाकि के लोगो से मेरी पहचान हो गयी। सुरेश, महेश्वरी, वैभवी, मनीषा, फ़रहीन, देवाशीष, मंगेश इन सबसे यही, टी ब्रेक में पहचान हुई थी ।

शुरू में क्लास ना आने की वजह से मैं पढ़ाई की रफ़्तार नहीं पकड़ पा रहा था। सो लैब में बैठना मेरे लिए दर्द जैसा होता था। सबके चेहरे पर बारह बजे होते थे, असेसमेंट सबमिट नहीं होता था और अगर किसी का हो गया तो अपने पे झल्लाहट होती थी। अक्सर लोग कम्पटीशन में लगे रहते और ये सब देख मैं  डर जाता। उस समय हमें एक प्रोग्रामिंग लाइब्रेरी मिलती थी जिसे हम अपने घर के कंप्यूटर में इस्तेमाल कर प्रोग्राम घर पर ही लिख सकते थे । ये 'लिब' प्रोग्राम के इनपुट आउटपुट डाटा के लिए लिखा गया था । सो मैं यही लेकर घर पर ही प्रोग्राम लिख लेता। पर मैं उस लिब को इस्तेमाल करना नहीं जानता था सो प्रोग्राम टेस्ट नहीं कर सकता था [एक जार फाइल को प्रोग्राम के साथ इस्तेमाल करना ]। और यही कमी मुझे न चाह कर लैब में ले आती। उस डर को निकालने का एक तरीका ढूंढ लिया , तय किया की अब अंदर के लैब में जाऊंगा भी नहीं। पर कभी-कभार झांक लेता था । दरवाजे के बगल में ही सुरेश बैठता था । सुरेश - एक दम गंभीर मुद्रा में रहता। शायद उसके बगल में महेश्वरी बैठती थी, याद नहीं कभी कभार देखा हो । अक्शर जब ब्रेक होता और हम सब बाहर मिलते तो मैं मजाकिया लब्जो में पढाई पर खिचाई करता। कुछ को अच्छा लगता कुछ को बुरा  ये आदत इंजीनियरिंग से रही । कभी गंभीर नहीं रहा सो आदत नहीं थी । इंजीनियरिंग में भी सिर्फ दो बार प्रोग्राम्स को लेके गंभीर हुआ था, एक बार जब sparse Matrix का प्रोग्राम लिखना था और एक बार जब सबमिशन के लिए सिर्फ एक प्रोग्राम चाहिए था और हमारा जर्नल (गर्ल्स हॉस्टल से फाइल न मिलने से )नहीं पूरा था और वो प्रोग्राम मैंने लिखा था । खैर बुरे लगने वालो में एक थी महेश्वरी। स्वाभिमान था और कोई उसे चैलेंज करे वो उसे बर्दास्त नहीं था और मैंने तो मोल ही ले लिए । इसका पता बाद में चला जब हमारे MGPT के रिजल्ट आये। सुरेश को भी मेरा मजाक पसंद नहीं था। टी लेते समय हमारी पहली हल्की झड़प थी पर में चुप रह गया । उसी समय मेरी पहचान प्रवीण से हुई। प्रवीण - हमेशा  हस्ते हुये बातें करता, Msc Physics करने के बाद NCST कर रहा था । Physics पसंदीदा होने के कारण और नॉन प्रोग्रामिंग फील्ड से होने के कारण में काफी पसंद करता था। देवाशीष, सलिल, मंगेश, पराग इन सबसे अभी शुरुवाती जान पहचान होने लगी । कितना अच्छा समय बीतता, नीरस क्लास लेक्चर के बाद मस्ती। हमारे बुकलेट में १३-१४ प्रोग्रामिंग प्रॉब्लम होते थे और शायद उनमे से कोई ७ या १० सबमिट करने होते थे। पर पहली बार इतना कठिन मॉडुल होने पर लगभग सब आधे तक ही कर पाये थे। शायद सुरेश, महेश्वरी  उनमे से थे जिसने पूरी तरह किया था। किसने किसने खुद पुरे किये ये मेरे लिए सब अज्ञान था क्यूंकि में कभी अंदर के लैब में जाता ही नहीं था । पर अमर के साथ साथ मैंने भी अपने प्रोग्राम ७ तक सबमिट कर लिए थे । शायद एकाध कॉपी भी किये थे पर मैं अपने तरीके से लिखने की वजह से पकड़ा नहीं गया। 


और फिर वो दिन आ गया, हमारा पहला MGPT। डिक्शनरी में शब्दों के एन्क्रिप्शन को लेकर था । लगभग शुरू के ३० मिनट में ही मैंने उसे लिख लिया था और सोंच लिया था की बड़े गर्व से बाहर आ कर सबको बताऊंगा । जितनी जिल्लत हुई थी उतनी ही खिचाई करूँगा पर मुझे क्या पता था की किस्मत ने मेरे लिए आनेवाले ९० मिनट में कुछ अलग बुन रखा था । हाय किस्मत ! अंत तक ७ टेस्ट केसेस में से आखरी का टेस्ट केस पास नहीं हुआ। कितना कुछ किया, यहाँ तक की दोबारा लिख दिया । फिर भी अंतिम टेस्ट केस पास ना हुआ । मुझे लगा अब बाहर जाऊंगा और हँसी का पात्र बनूँगा । पंगे जो ले रखे थे कितनो से। बहूत गुस्सा भी था, उस प्रोग्राम को बाद में स्टाफ तक को फॉरवर्ड किया और हमारे OOPJ के टीचर श्री चंद्रशेखर ने बताया की आप को newline character पर भी ध्यान देना चाहिए था। इस बात के गुस्से ने आनेवाले ३ कोशिश को बस जाया करवा दिया। आखिरी कोशिश में OOPJ MGPT पास हो गया । खैर बाहर आते ही देखा वातावरण गंभीर था । सबके सब फेल हो कर गुमसुम बैठे थे । सुरेश, महेश्वरी, अमर सभी के सभी। फिर पता चला लगभग ६ टेस्ट केसेस तक पहुचने में बहूत काम लोग थे। बहुत ख़ुशी हुई और बाद के समय में महेश्वरी से पता चला की अगर वो MGPT पास होती तो वो मुझे जरूर सुनाने वाली थी - मेरे sarcastic कमेंट्स का हिसाब बराबर मिलने वाला था। पर मैं बच गया। उस समय गजब की खबर सुनाई पड़ी। हमारे बीच शांत रहने वाला और अक्सर ना दिखाई देने वाला बन्दा MGPT पास हो गया था - देवाशीष और एक दूसरा जिसको किसी ने नहीं देखा था 'अदृश्य' काल्पनिक । हम सबके बीच देवाशीष अकेला था और उस दिन उसकी अलग ही छाप पड़ गयी । देवाशीष उस समय उगम कंपनी में काम करता था , मार्केट रिसर्च कंपनी थी । हफ्ते के ५-६ दिन थकान वाला काम और फिर रविवार को क्लास और असेसमेंट। पर इतना कुछ होते हुए भी उसने MGPT पास किया ये मिसाल बन गया । उस दिन नीरस होकर घर वापस आते समय एक प्रण लिया - OOPJ में जो गलती की वो DSAL में नहीं होगी और सबसे पहले मैं ही असेसमेंट सबमिट करूँगा और MGPT भी पास होऊंगा। और सछम भी था क्यूंकि DSAL मेरा सबसे प्यारा विषय रह चुका था । पर मैं अकेला नहीं था, मेरे साथ कोई और भी था इस रेस में - सुमित। 

अगले मॉडुल में एक नया स्टूडेंट खारघर से जुहू ट्रांसफर होने वाला था - जीतेन्द्र । हमारे सबके लिए जीतू, कुछ ६ फ़ीट लम्बा और शरीर से स्वस्थ । समझ लो अपने धरम पाजी जैसा । हम सबका एक ग्रुप बनने वाला था - 'Khule Guys'। ये नामकरण कैसे पड़ा मुझे नहीं याद पर हमारे साथ स्वप्निल करके एक बंदा था जिससे खुले ये शब्द जुड़ा था तो शायद उसी पर पड़ा हो । हम सबका कुछ न कुछ नामकरण था। केलेवाला, बुटक्या, साइंटिस्ट, वगैरा। ये समय हमारा सबसे अच्छा गुजरने वाला था यही हम सब एक साथ आनेवाले थे। पता नहीं क्या हुआ, शायद OOPJ के कठिन समय या फिर उसके डरावने रिजल्ट ने काया पलट ही कर दी। लगभग १३६ की संख्या वाले क्लास और कभी भी खाली ना रहने वाले लैब में सब उलट पुलट हो गया। जो लोग कभी कभार दीखते थे वो अब ज्यादा दिखने लगे और जो ज्यादा दीखते थे वो गायब । इन सबके बीच मैंने एक निर्णय लिया - अंदर के लैब में बैठना । शुरू से क्लास में जाना और असेसमेंट को पढ़ाने से पहले पूरा करना। चूँकि ये सारे पाठ इंजीनियरिंग में ही पढ़ रखे थे सो मेरे लिये कुछ कठिन नहीं था।  अंदर के लैब में मैंने अपना कंप्यूटर फिक्स कर रखा था - दरवाजे से तीसरा । बगल के कंप्यूटर पे या तो सुमित होता या तो महेश्वरी। पर उसी क्रम में खिड़की से लगे कम्प्यूटर्स पर देवाशीष और मंगेश बैठते। कोने के कम्प्यूटर्स सबसे छुपे रहते। आनेवाले समय में वो खुले गाइस का 'इलाका' बनने वाला था । वहा बैठ कर हमने कितने कांड किये होंगे। पीछे के क्रम में पराग अपनी टीम के साथ बैठता था। अब ये टीम कौन थी ये मत पूछना - ये खुले गाइस तक ही सिमित हैं । वही पास में वैभवी, मनीषा और फ़रहीन बैठते थे, शायद साथ में । पर लगभग ऐसा ही कुछ नजारा था । अमर सर और मै साथ साथ हो लिए लगभग लगाव सा कह लो । हमारा जन्म स्थान एक जगह रहा, घर के माहोल एक जैसे रहे और एक दूसरे के प्रति सदभावना ने हमारी दोस्ती को मजबूत कर दिया । आनेवाले समय में ये दोस्ती इतनी मजबूत रही की जीवन का एक सबसे कठिन दौर भी इसे हिला ना सका । वरना  ऐसे हालात में तो लोग अक्सर छूट जाते हैं। आज भी वैसी ही आत्मीयता हैं । खैर मैं लैब में असेसमेंट एक के बाद एक सबमिट करता जैसे कम्पटीशन लगी हो। मैं एक करता तो सुमित दूसरा । ३-४ असेसमेंट हमने बहुत तेजी से पुरे कर लिए । शुरू में महेश्वरी भी इसमें शामिल थी पर आगे जाते उसने हार मान ली। एक बार ऐसा लगा हमारा ये उत्साह किसी को डेमोरलाइस ना कर दे ।  इन सबके साथ एक अच्छा ये हुआ की हम सभी लोग एक दूसरे के काफी करीब आ गए । लगभग सब टी ब्रेक में बाहर सबसे अच्छे से बात करते। साथ साथ बाहर समोसा खाने जाते या फिर घूम कर भी आ जाते ।
NCST में एक तकलीफ थी, यहाँ AC बहूत ठंडा कर देती थी । अमूनन इंजीनियरिंग के बाद मैंने लगभग सिगरेट छोड़ दी थी पर यहाँ के AC ने वो आदत फिर लगा दी । और में अकेला नहीं था, यहाँ देवाशीष भी वही तकलीफ से गुजर रहा था । और फिर क्या, यही से शुरू हुआ हमारा टपरी का अड्डा। जैसे ही ब्रेक मिलता दोनों बाहर टपरी पर। हम दोनों को परवाह नहीं थी और हमारे साथ में ऐसा कोई था भी नहीं जो इसपर आपत्ति रखता हो । पर कन्नी हम जरूर काट लेते थे । और अगर कोई किसी से बात करते पाया गया तो फिर क्या ? मिल गया एक  नामकरण। पता नहीं कोई बचा हो शायद इस नामकरण से। बाद में अक्सर हम लोग लैब में काफी रुकने लगे । लेक्चर शायद कोई मम लेती थी, शायद चिंटू सर भी थे । लैब में अक्सर मैं सुबह अपनी जगह और रात के समय जब सिर्फ लड़के होते तो देवाशीष के तरफ सब चले जाते। वही सब बैठ कर मस्ती करते, असेसमेंट करते और गूगल सर्च। इंटरनेट के सागर में वही डुबकी लगी थी । और वही उसके विप्रभाव से साक्छात्कार हुआ था । इतने तेजी से मिलने वाले इंटरनेट पे हम काम की चीजो के साथ साथ अपने भी काम की चीजे करते। ऑरकुट, yahoo ग्रुप, गाने, मूवीज और पता नहीं क्या क्या । खैर इन सबने हम सबको पढ़ाई से विमुख नहीं किया। हम अपने असेसमेंट को पूरा करते गए। कभी सुमित आगे होता तो कभी मैं । आखिर सारे असेसमेंट पुरे हो ही गए । शायद आखिरी पर कुछ शक हैं, पर कुछ याद नहीं अब । एक मानवीय स्वभाव देखा हैं । आप अगर किसी से, किसी बात की कमी से उससे चिढ़ते हो और वो उसी काम में पारंगत हो जाये तो आप उससे लगाव रखने लग जाते हो। मेरे OOPJ में लापरवाही और गैरफिक्र नजरिये के बाद अचानक DSAL में आये परिवर्तन ने कई लोगो के करीब कर दिया । कह सकते हैं की में उनकी नजर मैं एक सम्मान बना गया था । और इन सब बातो ने मेरे सरकास्टिक रवैये को भी बदल दिया और उनके लिए अपनी नजर में अपनत्व पैदा कर दिया । वो मेरी मदत कर देते मैं उनकी । अक्सर उनकी बातें सुनता, कभी उन्हें नसीहत भी देता। मैंने वहा २ जिंदगी जी । दिन में शराफत और मस्ती वाली और रात में अपने खुले गाइस के साथ धमाल वाली । कितना कुछ बदल गया। प्रतियोगिता की जगह सहानुभूति ने ले ली थी। 

सब अच्छा बीत रहा था की एक दुर्घटना घट गयी । अड्मिनिस्टर ने कुछ स्टूडेंट को प्रोग्राम कॉपी करते पाया । कुछ लोगो ने दुसरो के प्रोग्राम वैसे के वैसे अपने सबमिट कर दिए और इंटेलिजेंट सॉफ्टवेयर ने ये पकड़ लिया । कुछ तो बेचारे बिना गलती के ही लिस्ट में आ गए, शायद प्रवीण था उनमे। वो मंजर आज भी भुला नहीं जाता।सजा के रूप में कुछ लोगो को MGPT में बैठने नहीं दिया गया।

। और फिर आया वो खतरनाक समय - DSAL MGPT । प्रोग्राम के बारे में पता नहीं पर इस बार मैं पास हो गया और वो अदृश्य काल्पनिक वयक्ति भी । DSAL एक मात्र ऐसा मॉडुल था जिसके २ MGPT मैंने पास किये थे और आगे कितने परीक्षा फेल हुए थे। उस समय और कौन पास हुआ था ये पता नहीं पर देवाशीष और मैंने अपने एक एक MGPT आखरी बार में ही पास किये थे । खैर एक बार शहीद हुआ दुबारा क्यों रोये, सो उस दिन कोई बड़ी उदासी नहीं देखी । 







क्रमशः (जारी )


2 comments:

  1. Eagerly waiting for next part. It's just like flashback of 2005. Thanks for sharing.

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  2. What a writeup Yogesh Jee. Every event floating alive in front of eyes. Thanks a lot for framing it out....Eagerly waiting for next part......

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